THE HIMALYA
BY DR. RAM SHARMA , MEERUT, INDIA
Cool serene shelter
Shades of different trees and birds chatter
Snow capped mountains shine
Large sky of spirituality
Communication of Great hermits and divinity
Ringing of bells
Blowing of conch shells
Monkeys and scenes wild
Fragrance of flowers , sandal trees and temperature mild
Transportation
From physical body to divine
Himalya
POR EL DR. SHARMA RAM, Meerut, India
Fresco sereno refugio,
sombras de árboles diferentess,trinos de aves,
montañas cubiertas de nieve .
Un extenso cielo espiritual
comunica a grandes ermitaños con la Divinidad.
Repique de campanas,
suenan los caracoles,
los monos y escenas salvajes.
Fragancia de las flores y de los árboles de sándalo ;temperaturas suaves
transportan
desde el cuerpo físico a la Divinidad
(translation by Meera Viviana Gonzalez, Buenos Aires, Argentina)
हिमालय
ReplyDeleteयुग युग से है अपने पथ पर
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!
जो जो भी बाधायें आईं
उन सब से ही लड़ा हिमालय,
इसीलिए तो दुनिया भर में
हुआ सभी से बड़ा हिमालय!
अगर न करता काम कभी कुछ
रहता हरदम पड़ा हिमालय
तो भारत के शीश चमकता
नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!
खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!
डिगो न अपने प्रण से तो ––
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!
अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!
(सोहनलाल द्विवेदी)
हिमालय
ReplyDeleteहिमगिरि के शिखरों पर
हिम की रेखा पतली
शेष रही अब और कगारों में
कुछ निचली
और गई रेखाएँ हिम की
खाकी नीली
हिमविहीन हैं इन्द्र नील
मणियों का टीला
गए मेघ वर्षा के अम्बर से गिरि के
हिम जल से गंभीर
किनारे कर सरि-सरि के
हंस-सूर्य फिर पर्वत पुंज अनेक पार कर
हँसता जैसे पथिक सुख भरे गृह में आकर
(चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
हिमालय के प्रति
ReplyDeleteमेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल।
मेरी जननी के हिम-किरीट,
मेरे भारत के दिव्य भाल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्।
निस्सीम व्योम में तान रहा,
युग से किस महिमा का वितान।
कैसी अखंड यह चिर समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
ओ, मौन तपस्या-लीन यती!
पल-भर को तो कर दृगोन्मेष,
रे ज्वालाओं से दग्ध विकल
है तडप रहा पद पर स्वदेश।
सुख सिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र
गंगा यमुना की अमिय धार,
जिस पुण्य भूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार।
जिसके द्वारों पर खडा क्रान्त
सीमापति! तूने की पुकार
'पद दलित इसे करना पीछे,
पहले ले मेरे सिर उतार।
उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
रे आन पडा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तडप रहे
डस रहे चतुर्दिक् विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
(रामधारीसिंह‘दिनकर’)
(1908-1974 ई.)